Wednesday, February 15, 2017

विश्व पुस्तक मेला 2017


विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में शिल्पायन के स्टाल पर 8 जनवरी 2017 को मेरे चौथे कविता संग्रह 'उजाड़' के विमोचन के कुछ यादगार पल! साथ में हैं वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार कृषक, रघुवंश मणि, विवेक मिश्र, अशोक मिश्र, उमेश शर्मा एवं अन्य मित्र।





















स्पंदन समारोह


पिछले दिनों जयपुर की साहित्यिक संस्था "स्पंदन" एवं "साहित्य समर्था" द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता/कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार सम्मान एवं अलंकरण समारोह के अवसर पर दो-तीन दिनों के लिए जयपुर जाना हुआ। मुख्य अतिथि के रूप में आदरणीया नासिरा शर्मा एवं चित्रा मुदगल मौजूद थीं वहां। 28.01.2017 को "स्पंदन" की अध्यक्षा नीलिमा टिक्कू के आवास पर दाहिने से नासिरा शर्मा, किरण अग्रवाल, मालिनी गौतम, चित्रा मुदगल, इंदु गुप्ता, सुदेश बत्रा और पवन सुराणा।



कविता में द्वितीय स्थान,अलंकृत



Thursday, November 5, 2015

तत्सम में छपी कविताएँ (14 अप्रैल 2015)


मुझे एक वसीयत लिखनी थी आने वाली पीढ़ी के नाम
और छुपा देना था उसे कविता की सतरों के भीतर
मुझे बनानी थी हत्यारों की तस्वीर
और लिख देने थे उनके नाम और पते।

कविता में हत्यारों की तस्वीर बनाने की बात करने वाली ये कविता है कविता की सुपरिचित हस्ताक्षर किरण अग्रवाल की। सिर्फ़ एक अनुरोध पर उन्होने तत्सम के लिये ये कविताएँ उपल्बध करवा दी हैं और अब ये आपके हवाले...
- प्रदीप कान्त

नेट पर...

नेट पर एक पूरी दुनिया है
हर क्षण रूप बदलती हुई
गति और रोमांच से भरपूर
जातिधर्म और वर्ण से परे
जिसके भीतर कोई भी प्रविष्ट हो सकता है
निःषंक-निर्भीक-निर्निवाद

नेट पर एक पूरी दुनिया है
और इस दुनिया के एक हिस्से में
बंद है मेरा प्रोफाइल
जिसे खोल सकता है
की बोर्ड पर किसी की अंगुलियों का हल्का सा दबाव मात्र
संसार के किसी भी कोने से
किसी भी समय

नेट पर एक पूरी दुनिया है
इस दुनिया के एक हिस्से में बंद है मेरा प्रोफाइल
इस प्रोफाइल में दर्ज है मेरा नाम
मेरा पतामेरी उम्रमेरी योग्यता
मेरी पसन्द-नापसन्दयात्राएँउपलब्धियाँ
मेरे अनुभवमेरी जरूरतेंमेरा कॉन्टेक्ट नम्बर और ई-मेल आई डी
सब कुछ मौजूद है वहाँ मेरे बारे में
लेकिन मैं कहाँ हूँ वहाँ सोचती हूँ मैं
000

अपने से मिलने

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
और उसे लगा मैं उससे मिलने आयी हूँ

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
और उसने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
लेकिन वहाँ तो नो इंटरी का बोर्ड लगा था

फिलहाल लौट आयी हूँ मैं वापस
लेकिन जल्दी ही पुनः जाऊँगी उसके पास
                                                               अपने से मिलने
000

कविता के इलाके में

कविता के इलाके में
पुलिस से भाग कर नहीं घुसी थी मैं
वहाँ मेरा मुख्य कार्यालय था
जहाँ बैठकर
जिन्दगी के कुछ महत्वपूर्ण फैसले करने थे मुझे
यह सच है तब मैं हाँफ रही थी
मेरी आँखौं में दहशत थी
पर कोई खून नहीं किया था मैंने
लेकिन मैं चश्मदीद गवाह थी अपने समय की हत्या की
जिसे जिन्दा जला दिया गया था धर्म के नाम पर
मैं पहचानती थी हत्यारों को
और हत्यारे भी पहचान गये थे मुझे
वे जो ढलान पर दौड़ते हुए मेरे पीछे आये थे
वह पुलिस नहीं थी
पुलिस की वर्दी में वही लोग थे वे
जो मुझे पागलों की तरह ढूँढ़ रहे थे
जो मिटा देना चाहते थे हत्याओं के निशान
किसी तरह उन्हें डॉज़ दे
घुस ली थी मैं कविता के इलाके में
और अब एक जलती हुई शहतीर के नीचे खड़ी हाँफ रही थी
जो कभी भी मेरे सिर पर गिर सकती थी
दंगाई मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे
मुझे उनसे पहले ही अपने मुख्य कार्यालय पहुँचना था
और निर्णय लेना था कि किसके पक्ष में थी मैं
मुझे एक वसीयत लिखनी थी आने वाली पीढ़ी के नाम
और छुपा देना था उसे कविता की सतरों के भीतर
मुझे बनानी थी हत्यारों की तस्वीर
और लिख देने थे उनके नाम और पते।
000
हाथ

आज पहली बार अपने हाथों की उभरती नसों पर निगाह पड़ी मेरी
और मैं भयभीत हो गई
ये वे हाथ थे जिन्हें देखकर रश्क होता था मेरी सहपाठिनों को

ये वे हाथ थे जिनपर टिक जाती थीं पुरूषों की निगाहें
ये वे हाथ थे जिन्हें एक बार मेरे जर्मन डॉक्टर ने यकबयक
(जिसके पास मैं चेकअप के लिये जाती थी अक्सर)
अपने हाथों में लेकर कहा था..
Ihr Händesind sehr schön *
और मेरे दिल की धड़कन सहसा बंद हो गई थी
और डॉक्टर घबड़ाकर मेरी नब्ज ढूँढ़ने लगा था

आज पहली बार अपने उन हाथों की उभरती नसों पर निगाह पड़ी मेरी
और अपने निरर्थक भय पर हंसी आयी
इन हाथों के पास अब सहारा था कलम का

जिसका इस्तेमाल कर सकते थे वे बखूबी खुरपी की तरह
और बंदूक की तरह भी
वे लिख सकते थे इससे प्रेम पत्र
और कर सकते थे हस्ताक्षर शान्ति प्रस्तावों पर
वे एक पूरी दुनिया को बदलने का माद्दा रखते थे


*तुम्हारे हाथ बहुत खूबसूरत हैं

Sunday, April 6, 2014

महादेवी सृजन पीठ

कुमाऊ विश्वविद्यालय, महादेवी सृजन पीठ, रामगढ़ (मार्च २०१४)



Saturday, June 4, 2011

रिसाइकिल बिन

खिड़कियाँ बंद हैं
दरवाजे बंद हैं
आँगन की ओर वाली ग्रिल भी लगा दी है मैंने
जैसे कि गर शाम लगा देती हूँ दिन ढलते ही
जब पंक्ति में अकेले खड़े होने का बोध
मेरे भीतर की स्थिरता को तार-तार करने पर आमदा हो चुका होता है
और मैं उसे धत्ता बताने पर उतारू

खिड़कियाँ बंद हैं
दरवाजे बंद हैं
समय भी बंद है
जैसे बंद हो जाती है घड़ी
जैसे बंद हो जाती है दिल की धड़कन
जैसे बंद हो जाती हैं दुकानें
शहर में कर्फ्यू लग जाने पर

समय भी बंद हो गया है
या मुझे ऐसा लगता है की समय बंद हो गया है
या कि शायद मैंने ही उसे बंद कर दिया है कमरे के भीतर
लेकिन समय दुष्ट है
शैतान का ताऊ है वह
देखना अभी निकल भागेगा खिड़की और दरवाजों की दरारों से रिस-रिसकर
और ठंडी, बर्फीली हवा भीतर चली आएगी उसी रास्ते

मुझे अचानक सिहरन सी महसूस हो रही है
जैसे बर्फ होता जा रहा है धमनियों और शिराओं में बहता हुआ खून
और मैं बिस्तर के पास कुर्सी पर रखे
बजाज ब्लोवर का स्विच ऑन कर देती हूँ
घर्र-घर्र-घर्र-घर्र एक पंखा सा चलने लगा है दिमाग में
एक अदृश्य बिजली जिस्म के पोर-पोर में कौंधने लगी है
और मुझे लगता है जैसे मेरी शैली के फ्रैन्कैस्तीन के भीतर से
एक दानव आकृति आहिस्ता-आहिस्ता आँखें खोल रही है
ऐसे में जब मैं सोच रही होती हूँ
दानव और उससे निबटने की तरकीबें
समय आँख बचा
निकल भागता है कमरे की कैद से

मैं खोलती हूँ एक खिड़की
और घबड़ाकर बंद कर देती हूँ
मैं फिर खोलती हूँ खिड़की और झांकती हूँ बाहर
ठमके हुए अँधेरे के चेहरे पर झूल आई लटों को
एक ओर करने की कोशिश करती हुई
सामने सड़क पर एक स्त्री लंगडाती हुई चली जा रही है
और मुझे लगता है कि यह समय है लंगडाकर चलता हुआ
शायद उसके पांव में मोच आ गई है
और मैं आवाज़ देती हूँ उसे -
"ले अर्निका की एक खुराक खा ले
या नहीं तो मूव लगाके क्रेप बैंडेज बंधवा ले"
लेकिन वह नहीं सुनता मेरी आवाज़
और न ही वापस लौटता है
देखते ही देखते वह मेरी आँखों से ओझल हो गया है
"खुदा खैर करे! जाने कहाँ जायेगा यह और इसकी दुनिया... !"
मैंने समय पर खिड़की बंद कर ली है

संस्कारों की पटरी से उतरा हुआ समय है यह
सोने का भाव बढ़ने और आदमी का भाव घटने का समय है यह
यह समय है सारी दुनिया के करीब सिमट आने का
यह समय है आदमी से आदमी के दूर जाने का
यह समय है झूठ और मक्कारी के सम्मानित होने का
यह समय है सत्य और ईमानदारी के रद्दी के मोल बिकने का
यह बाज़ार का समय है और बाज़ार में चलने का समय है

मैंने समय पर खिड़की बंद कर ली है
मेरा जीना और मरना बेमानी है समय के लिए
मेरा होना और न होना समय के कंप्यूटर से डिलीट हो चुके हैं
वे नहीं रहे रिसाइकिल बिन में भी अब
और मैं समय विहीन एक फाइल बन चुकी हूँ
बेरहमी से इस विशाल गैलेक्सी में उछाल दी गई

खिड़कियाँ बंद हैं
दरवाजे बंद हैं
आँगन की और वाली ग्रिल में भी पड़ा है ताला
मुहे एक-एक कर खोलने हैं सारे ताले
सारी खिड़कियाँ और दरवाजे
मुझे जड़ना है इस हिंसक और बेलगाम समय के मुंह पर एक झन्नाटेदार तमाचा
और मैं सोचती हूँ कि इसके लिए जरुरी है सबसे पहले
उस गुमशुदा फाइल को पुनः हासिल करना
फिर मुझे खोजना है वह कोड भी जो डिकोड कर दे उस फाइल को
और मेरे सामने डान ब्राउन का द डा विन्ची कोड जल-बुत जल-बुत करने लगता है
और उसके भीतर से मोनालिसा निकल
मेरी आँखों में आँखे डाल अजीबोगरीब ढंग से मुस्कराने लगती है.....

प्रकाशित: कथादेश, जनवरी, 2011